विकिपीडिया, कश्चन स्वतन्त्रः विश्वकोशः
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११:३३, २२ मे २०१५ इत्यस्य संस्करणं
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भारतीयदर्शनशास्त्रम् दृष्टिभूतस्य पदार्थजातस्य ज्ञानं दर्शनं भवति। भारतवर्षे मानवसभ्यतायाः आदिमयुगे भारतीयैः मनीषिभिः न केवलं मानवीयसमस्यानाम् अपि तु जडजगतः गूढातिगूढानां रहस्यानां प्रकाशनं स्वकीयया क्रान्तप्रज्ञया कृतम्। ते भारतीया मनीषिणः ऋषयो बभूवुः। ते वेदानामपि साक्षाद् दर्शनं कृतवन्तः। अत एव ‘ऋषयो मन्त्रद्रष्टारः’ इत्युच्यते स्म। मन्त्रद्रष्टृणां पुरतो लोकस्य दृष्टिभूतानां बाह्यपदार्थानां विषये ज्ञानस्य प्राप्तिः कथं भवेत् इति जिज्ञासा वर्तते स्म। तेषामन्तःकरणे भौतिकानाम् आध्यात्मिकानाञ्च तत्त्वानां चिन्तनाय पर्याप्तम् अवसरोऽविद्यत। ते मनीषिणो विचारितवन्तः –एषा दृश्यमाणा चराचराणां महती सृष्टिः कथं सञ्जातेति। कोऽस्याः कर्त्ता रचयिता वा ?( अधिकवाचनाय »)
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ब्रह्मगुप्तः(५९८-६६८) महान् गणितज्ञः, ज्योतिषी च आसीत्। तस्य जन्म भिल्लमलपुरे अभवत्। सः हर्षमहाराजस्य राज्ये वसति स्म। अयं गणितविषये ज्योतिष्यविषये च बहूनि पुस्तकानि अलिखत्। तदीयं सुप्रसिद्धः ग्रन्थः नाम 'ब्रह्मस्फुटसिद्धान्तः'। एतं ग्रन्थं सः ६२८ तमे वर्षे अलिखत्। अस्मिन् ग्रन्थे २५ अध्यायाः सन्ति। ब्रह्मगुप्तः ५९८ तमे वर्षे भारतस्य राजस्थनमण्डले स्थिते भिन्माल्-नगरे जन्म प्राप्नोत्। अस्य पिता जिष्णुगुप्तः। जिष्णुगुप्तः स्वस्य जीवनस्य महान्तं भागं भिल्लमलपुरे (अद्यत्वे अयं प्रदेशः भिन्माल् इति कथ्यते) एव अयापयत्। तस्मिन् समये राज्ञः व्याघ्रमुखस्य शासनम् आसीत्। अतः एव जनाः ब्रह्मगुप्तं भिल्लमलाचार्यः इति कथयन्ति स्म। ब्रह्मगुप्तः उज्जयिन्यां विद्यमानस्य खगोलवीक्षणकेन्द्रस्य प्रमुखः आसीत्। अस्मिन् समये तेन गणित-ज्योतिष्यविषययोः चत्वारः ग्रन्थाः लिखिताः - चण्डमेखला (६२४ तमे वर्षे), ब्रह्मस्फुटसिद्धान्तः (६२८ तमे वर्षे), खण्डखाद्यकम् (६६५ तमे वर्षे)। तेषु ब्रह्मफुटसिद्धान्तः अत्यन्तं प्रसिद्धः जातः। अस्य ग्रन्थस्य अराबिक्-भाषया अनुवादः अपि कृतः। ( अधिकवाचनाय »)
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दूरीकरोति दुरितं विमलीकरोति
चेतश्चिरन्तनमघं चुलुकीकरोति
भूतेषु किञ्च करुणां बहुलीकरोति
सत्सङ्गतिः कथय किं न करोति पुंसाम्।
- सु.भा. - सत्सङ्गतिप्रशंसा (९१/३०)
लोके सर्वेषां जनानां स्नेहिताः भवन्ति एव। तेषु स्नेहितेषु सज्जनानां संख्या तु न्यूना एव। यतः स्वार्थपराः एव अधिकाः सन्ति लोके। तथापि अस्माभिः सज्जनानां सहवासः एव करणीयः इति वदन् सुभाषितकारः तत्र कारणमपि वदति - सज्जनानां सहवासेन पुरुषाणां मनसि स्थिताः दुष्टाः विचाराः दूरं गच्छन्ति। मनः शुद्धं भवति। पुरा कृतं पापमपि भस्म भवति। अपि च प्राणिनां विषये दया अधिका भवति। अतः सज्जनानां स्नेहः मनुष्याणां किं वा न करोति ? अर्थात् सर्वविधानि मङ्गलानि अपि जनयति।
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