सदस्यः:Vasistha HariKrishna
दिखावट
यदा किंञ्चिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवम्
तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः ।
यदा किञ्चित् किञ्चित् बुधजनसकाशादवगतं
तदा मूर्खोऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः ॥
• जब मैं थोडा जाननेवाला बना, तब हाथी जैसा मदांध हुआ; तब मैं सर्वज्ञ हूँ, ऐसा समजकर मेरा मन घमंडी बना । लेकिन, जब ज्ञानी लोगों के संसर्ग से थोडा थोडा समजने लगा, तब मैं मूर्ख हूँ, ऐसा भान हुआ; और मेरा गर्व बुखार की तरह चला गया ।
नाभिषेको न संस्कारः सिंहस्य क्रियते वने ।
विक्रमार्जितसत्त्वस्य स्वयमेव मृगेन्द्रता।।
• सिंह को जंगल का राजा नियुक्त करने के लिए न तो कोई अभिषेक किया जाता है, न कोई संस्कार । अपने गुण और पराक्रम से वह खुद ही मृगेंद्रपद प्राप्त करता है ।