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एद्वर्द् गिब्बोन्[सम्पादयतु]

इसकी व्याख्या इस प्रकार है कि निरंतर परिश्रम करते रहने से असाध्य माना जाने वाला कार्य भी सिद्ध हो जाया करता है। असफलता के माथे में कील ठोककर सफलता पाई जा सकती है। जैसे कूंए की जगत पर लगी सिल (शिला) पानी खाींचने वाली रस्सी के बार-बार आने-जाने से, कोमल रस्सी की रगड़ पडऩे से घिसकर उस पर निशान अंकित हो जाया करता है। उसी तरह निरंतर और बार-बार अभ्यास यानि परिश्रम और चेष्टा करते रहने से एक निठल्ला और जड़-बुद्धि समझा जाने वाला व्यक्ति भी कुछ करने योज्य बन सकता है। सफलता और सिद्धि का स्पर्श कर सकता है। हमारे विचार में कवि ने अपने जीवन के अनुभवों के सार-तत्व के रूप में ही इस तरह की बात कही है। हमारा अपना भी विश्वास है कि कथित भाव ओर विचार सर्वथा अनुभव-सिद्ध ही है।

उल्लेख[सम्पादयतु]

|https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/2/20/Indian_Culture.jpg/800px-Indian_Culture.jpg]] https://en.wikipedia.org/wiki/Edward_Gibbonhttps://www.britannica.com/biography/Edward-Gibbonhttps://www.theguardian.com/books/2017/sep/04/100-best-nonfiction-books-decline-and-fall-of-the-roman-empire-edward-gibbon

एद्वर्द् गिब्बोन्

विज्ञप्ति[सम्पादयतु]

| नाम = महरन प्रतप् | प्रादेशिकनाम = महरन मेवर् | प्रादेशिकनामभाषा = हिन्दि | जन्म = ९ मय् १५४० | जन्मस्थानम् = कुम्भल्गर्ह् होर्त् | जन्मनाम = महरन प्रतप् | प्रत्यववस्थानम् = मेवर् रज | प्रत्यववस्थानम् = मेवर् रज | मृत्युः = १९ जनुअर्य् १५९७ | मृत्युदिनाङ्कः = १९ जनुअर्य् | मृत्युस्थानम् = चवन्द् | मृत्योःकारणम् = युध मरन् | समाधेःस्थानम् = म्वएव्र् | निवासः = मेवर | स्मारकः = हल्दिघति युध