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१०:०५, २५ अक्टोबर् २०११ इत्यस्य संस्करणं
(कालः – क्रि.पू. ३८४ तः क्रि.पू.३२२)
अयम् अरिस्टाटल् (ARISTOTLE) प्रपञ्चस्य प्रथमः जीवविज्ञानी अस्ति । आधुनिकानाम् इतिहासकाराणां “वैज्ञानिकं विधानं” निरूपितवान् अरिस्टाटल् एव । सः क्रि.पू.३८४तमे वर्षे ग्रीस्-देशस्य “सगिर” इति प्रदेशे जन्म प्राप्नोत् । अयम् अरिस्टाटल् दिग्विजययात्रां कुर्वन्, विश्वम् एव जित्वा आग्च्छामि इति वदन्, भारतं प्रति आगत्य पुरूरवेण पराजितः सन् प्रतिगतस्य चक्रवर्तिनः अलेग्साण्डरस्य गुरुः । विश्वे एव अद्वितीयस्य विज्ञानचिन्तकस्य अरिस्टाटलस्य पिता म्यासिडेनियाराजस्य आस्थाने वैद्यः आसीत् । तस्मात् एव कारणात् अरिस्टाटल् विज्ञाने, तत्त्वज्ञाने च आसक्तिं प्राप्नोत् । अरिस्टाटल् तत्त्वशास्त्रं, गणितं, भौतविज्ञानं, खगोलविज्ञानं, रसायनविज्ञानं, जीवविज्ञानं च अधीत्य संशोधनानि अपि अकरोत् ।
क्रि.पू.३६७तमे वर्षे अरिस्टाटलस्य पिता दिवङ्गतः । तदा अरिस्टाटल् १७ वर्षीयः आसीत् । तदा सः अथेन्स्-नगरं गत्वा सुप्रसिद्धस्य तत्त्वशास्त्रज्ञस्य प्लेटोवर्यस्य शिष्यत्वं प्राप्नोत् । २० वर्षाणि यावत् प्लेटोसमीपे अध्ययनम् अकरोत् अरिस्टाटल् । अरिस्टाटल् अत्यन्तं बुद्धिमान् आसीत्, सदा प्रश्नान् पृच्छति स्म च । तस्मात् गुरुः प्लेटो सन्तुष्टः भवति स्म । अतः एव अरिस्टाटल् गुरोः प्लेटोः प्रियः शिष्यः सञ्जातः । अरिस्टाटल्स्य ३७तमे वयसि गुरुः प्लेटो अपि कालवशः जातः । तदनन्तरम् अरिस्टाटल् १२ वर्षाणि यावत् ग्रीस्-देशे, एषियामैनर्-देशेषु सञ्चरन्, पाठयन्, प्रकृतिवीक्षणं कुर्वन्, लिखन् च कालम् अयापयत् । सर्वदा तस्य् हस्ते किमपि एकं पुस्तकं भवति स्म एव । यत् यत् पश्यति तत् सर्वम् अपि टिप्पणिपुस्तके उल्लिखति स्म अरिस्टाटल् । जीविनां लोके स्वेन दृष्टं सर्वम् उल्लिखन् १८० प्रभेदान् मीनान्, शुक्तिमतान् प्राणीन्, जले वसतः जन्तून् च संशोध्य, नामोल्लेखं कृत्वा विवृतवान् आसीत् । तदनन्तरं भूमौ वसतः प्राणीन् अपि तत्र पट्टिकायां योजितवान् । तदनन्तरं तेषां सर्वेषां प्राणिनां दैहिकलक्षणानाम् अनुगुणं वर्गीकरणम् अपि अकरोत् । तस्मात् एव कारणात् अरिस्टाटल् जगति एव प्रथमः जीवविज्ञानि इति प्रसिद्धिम् अपि प्राप्नोत् ।
केषाञ्चन प्राणिनां कशेरुकं भवति ते कशेरुकाः । केषाञ्चन प्राणिनां कशेरुकं न भवति ते अकशेरुकाः । केचन प्राणिनः अण्डरूपेण जन्म प्राप्नुवन्ति । अन्ये केचन प्राणिनः मातृवत् रूपं प्राप्य जन्म प्राप्नुवन्ति । केषाञ्चन प्राणिनां शरीरस्य उष्णता तेषां वसतिस्थानस्य परिसरस्य अनुगुणं परिवर्तते । कदाचित् शीतलं कदाचित् उष्णं वा भवति शरीरम् । ते शीतरक्तप्राणिनः । केषाञ्चन प्राणिनां शरीरस्य उष्णता सर्वदा समाना भवति । ते च उष्णरक्तप्राणिनः । इत्येतान् अंशान् संशोध्य उल्लिखितवान् । अरिस्टाटल्स्य अपेक्षानुगुणं सस्यानं प्राणिनां च प्रभेदानां सङ्ग्रहणाय तस्य शिष्यः अलेक्साण्डरः व्याधान्, वाटिकारक्षकान्, धीवरान् च असूचयत् । जगति विद्यमानस्य सर्वस्य अपि देशस्य प्राणिवैविध्यं, सस्यवैविध्यं च सङ्ग्रहीतुं ग्रीस्-देशे, एषियाखण्डे च सहस्राधिकाः नियुक्ताः आसन् अलेक्साण्डरेण । तैः सङ्गृहीतं सर्वं प्राप्य अध्ययनं संशोधनं च कृत्वा अरिस्टाटल् “जीवशास्त्रस्य पितामहः” इति प्रसिद्धः सञ्जातः ।
जगतः ज्ञानभण्डारं प्रवेष्टुम् अरिस्टाटल् समीपे विद्यमाना कुञ्चिका नाम तर्कः एव । वस्तुस्थितिः तेन अरिस्टाटलेन प्राप्तस्य ज्ञानस्य आधारः आसीत् । परितः विद्यमानं सर्वम् अपि सूक्ष्मेक्षिकया परिशील्य, वास्तविकैः अंशैः सिद्धान्तं निरूपयतः तस्य वैज्ञानिकः मनोधर्मः आसीत् । अयम् अरिस्टाटल् न केवलं शिष्यान् बोधयति स्म अपि तु सामान्यानां जनानाम् अवगमनाय् उपन्यासम् अपि करोति स्म । अरिस्टाटल् ४०० पुस्तकानि लिखितवान् इति ज्ञायते । तस्य पुस्तकानि ४ शतकस्य ग्रीक्विद्वत्ततायाः विश्वकोषः इति वक्तुं शक्यते । सः खगोलविज्ञानविषये, भौतशास्त्रे, काव्ये, जीवशास्त्रे, प्राणिशास्त्रे, राज्यशास्त्रे, तर्कशास्त्रे, नीतिशास्त्रे, वाक्पटुत्वविषये च ग्रन्थान् अलिखत् । २०००वर्षेभ्यः पूर्वं तेन कृतानि संशोधनानि अवलोकनानि च अद्यतनीयाः विज्ञानिनः अपि अङ्गीकुर्वन्ति ।
क्रि.पू.३२३तमे वर्षे चक्रवर्ती अलेक्साण्डरः “ब्याबिलान्” इति प्रदेशे मरणम् अवाप्नोत् । तदा शिष्यस्य मरणवार्तां ज्ञात्वा, स्वस्य प्राणानाम् अपायम् अवलोक्य “काल्सिस्” इति प्रदेशं प्रति पलायनम् अकरोत् । तदनन्तरवर्षे एव ६३तमे वयसि क्रि.पू.३२२तमे वर्षे अरिस्टाटल् दिवं गतः । विश्वस्य इतिहासे एव “आश्चर्यकरः गुरुः” इति कीर्तिं प्राप्तवान् अस्ति अरिस्टाटल् ।